क्या आप रोग,शोक एवं बंधत्व की समस्या से परेशान हैं?कीजिये बत्तीस पुर्णिमा का व्रत भगवान शिव जी की कृपा से पूर्ण होंगी आपकी सारी मनोकामनाएँ,द्वात्रिंसत पुर्णिमा व्रत को करने से व्रती की सारी कामनाएँ पूर्ण होती हैं,इस व्रत का महात्म्य स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने बताया है |
भगवान कृष्ण ने कहा हे माता एक समय की बात है,इस धरातल पर धनेश्वर नाम का राजा रहता था,वह बहुत ही नेक और प्रजापालन मे बहुत ही निपुण था. घर मे धन-धान्य आदि की कोई कमी नहीं थी,परंतु उसको एक ही दुख था,की उसको कोई भी संतान नहीं थी इस दुख से वह बहुत ही दुखी रहता था. एक बार उस राजा के नागरी मे एक साधू भिच्छा माँगने के लिए आया,वह साधू गाँव के सभी घरों से भिच्छा लिया परंतु राजा के यहाँ से भिच्छा नहीं लिया,तब तो उस राजा को बड़ा ही दुख हुआ,राजा ने साधू के पास जाकर पुंछा-हे महात्मन आपने सभी घरों से भिच्छा लिया परंतु मेरे घर से भिच्छा नहीं लिया,इसका कारण क्या है. साधू ने जबाब दिया -हे राजन शास्त्रों मे लिखित है की जिसकी कोई संतान न हो उसके यहाँ भीख पतितों के तुल्य होती है,अर्थात मै पतित हो जाने के भय से तुम्हारे घर की भीख नहीं लिया|
तब तो उस राजा को बड़ा ही कष्ट हुआ,वह रोते हुये साधु के चरणों पर गिर पड़ा, बोला-हे महात्मन आप सामर्थ्यवान हैं मेरे इस घोर पीड़ा का निवारण करें,नहीं तो आप मुझे श्राप देकर भष्म कर दें ,राजा के ऐसे दुखद वाक्य को सुनकर उस साधु को दया आयी,और बोला-हे राजन आप घर जाओ कल सुबह आप नीद से उठोगे तो इस स्टैन के समीप आपको एक आम का वृच्छ दिखाई देगा जिस पर एक फल लगा हुआ होगा,उस फल को तोड़ कर अपनी स्त्री को दे देना स्नानादि निवृत्त होकर भगवान शिव जी का ध्यान करके इस फल को खालेगी तो भगवान शिव जी की कृपा से वह गर्भवती हो जाएगी |
कुछ दिनो बाद उसको एक संतान की प्राप्ति हुयी,जिसका नाम उन्होने देविदास रखा,माता पिता के अपार त्याग के कारण वह बालक दिनों-दिन शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति अपने पिता के घर मे बढ्ने लगा,एक दिन भगवान शिव जी राजा के स्वप्न मे आए औ बोले-हे राजन तुम्हारा पुत्र 16 वर्ष की आयु मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा,तब तो बेचारे राजा को बहुत ही तकलीफ हुई,भगवान शिव जी से बोला-हे भगवान इतने कठिनाइयों के बाद मुश्किल से हमे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है,मेरे पुत्र को दीर्घायु कीजिये,तब भगवान शिव जी ने राजा को बताया की हे राजन तुम पुत्र को दीर्घायु बनाने के लिए द्वात्रिंसति अर्थात 32 पुर्णिमा का व्रत रखो,अगर तुम विधि पूर्वक बत्तीस पुर्णिमा का व्रत कर लोगे तो तुम्हारा पुत्र दीर्घायु यानि बड़ी आयु वाला हो जाएगा |
कुछ दिनो बाद उसको एक संतान की प्राप्ति हुयी,जिसका नाम उन्होने देविदास रखा,माता पिता के अपार त्याग के कारण वह बालक दिनों-दिन शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की भांति अपने पिता के घर मे बढ्ने लगा,एक दिन भगवान ,तब तो बेचारे राजा को बहुत ही तकलीफ हुई,भगवान शिव जी से बोला-हे भगवान इतने कठिनाइयों के बाद मुश्किल से हमे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है,मेरे पुत्र को दीर्घायु कीजिये,तब भगवान 32 पुर्णिमा ,अगर तुम विधि पूर्वक बत्तीस पुर्णिमा का व्रत कर लोगे तो तुम्हारा पुत्र दीर्घायु यानि बड़ी आयु वाला हो जाएगा |
भगवान शिव जी के बताए हुये नियमों के अनुसार वह राजा सपत्नीक बत्तीस पुर्णिमा का व्रत प्रारम्भ कर दिया ,जब सोलहवां वर्ष प्रारम्भ हुआ तो राजा को बहुत ही चिंता होने लगी कि कहीं इस वर्ष मे हमारे पुत्र कि मृत्यु न हो जाए,अगर यह घटना हमारे समक्ष हो जाएगी तो हम लोग इसे कैसे सहन कर सकेंगे,फिर राजा ने अपने साले को बुलवाया और कहा कि हमारी इच्छा है कि देविदास एक वर्ष तक काशी मे जाकर विद्याध्ययन करे,उसको अकेला भी नहीं छोड़ना चाहते इसलिए साथ मे तुम चले जाओ,इस बात को राजा ने अपने शाले से नहीं बताया,और पुत्र को शाले के साथ काशी के लिए भेज दिया,रास्ते मे जब दोनों मामा-भांजे जा रहे थे तो उस गाँव मे एक कन्या का विवाह हो रहा था,मामा भांजे विश्राम करने के लिए उसी बारात मे रुक गए,संयोगवश जब लग्न का समय हुआ तो वर को धनुवार्त हो गया,फिर वर के पिता ने सोचा यह बालक {देविदास}मेरे पुत्र जैसा ही सुंदर है क्यौं ना पूजन आदि का कार्य इस लड़के के साथ करवा दूँ बाद मे विवाहादि का कार्य मै अपने पुत्र से करवा दूंगा ,फिर वर पिता देविदास के पास गया और बोला कि थोड़ी देर के लिए इस बारात का दूल्हा तुम बन जाओ मै तुम्हें बहुत सारी स्वर्ण मुद्राएं दूंगा,पहले तो देविदास तैयार नहीं हो रहा था,जब उसके मामा ने समझाया तो वह तैयार हो गया |
जब वह {देविदास} कन्या के साथ विवाह मे बैठा तो कन्या ज़ोर ज़ोर से उसका हाथ दबाने लगी और कहने लगी हे स्वामी आप उठिए और भोजन करिए आप निश्चित ही भुंखे होंगे,कन्या के इस बात पर देविदास कहने लगा कि ऐसा मत करिए मै इस बारात का दूल्हा नहीं हूँ थोड़ी देर के लिए मै पूजन आदि के कार्य को पूरा करने के लिए बैठाया गया हूँ,देविदास के ऐसे शब्दों को सुनकर कन्या कहने लगी कि ऐसा कैसे हो सकता है,यह व्रह्म विवाह के विपरीत है,मैंने देव अग्नि,कलश और गौरी को शाक्षी मानकर आपको अपना पति बनाया है आप ही मेरे पति हैं कोई अन्य नहीं हो सकता” कन्या के इन बातों को सुनकर देविदास मन ही मन बहुत दुखी हुआ तथा उसके आँखों से आँसू बहने लगे और कहने लगा कि ऐसा मत करिए मेरे साथ रहकर आपको कुछ मिलने वाला नहीं है क्यौंकी मेरी आयू बहूत कम है मेरे बाद आपकी क्या गति होगी,कन्या ने कहा हे स्वामी मै एक व्रह्म कन्या हूँ जो आपकी गति होगी वही मेरी भी होगी,देविदास ने बहुत समझाया परंतु वह कन्या नहीं मानी,|
इतना सब कहने के पश्चात वह अपने मामा के साथ काशी के लिए प्रस्थान कर दिया,जब सोलहवां वर्ष प्रारम्भ हुआ देविदास अपने कमरे मे विश्राम कर रहा था,उसी समय काल से प्रेरित होकर स्वयं यमराज एक विषैले सर्प के वेश मे उसके कमरे मे प्रकट हुये
सर्प के विश कि ज्वाला इतनी भयंकर थी कि पूरा कमरा विषैला हो गया था,तथा विश के प्रभाव से देवीदास बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा,तदु उपरांत यमराज उसके शरीर से प्राण को निकालने का प्रयत्न करने लगे,उधर उसकी स्त्री अपने पति के प्राणो को बचाने के लिए प्रयत्न कर रही थी,जब उसने देखा कि पुष्पवाटिका मे पत्र पुष्प कुछ भी नहीं रहे तो उसको बड़ा आश्चर्य हुआ और सोचा कि ये कैसे हुआ,उसी समय माता पार्वती के साथ शंकर जी देविदास के कमरे मे आ पहुंचे ऐसे दुखद दृश्य को देखकर माता पार्वती ने भगवान शिव जी से कहा कि हे दयानिधान इसकी मा ने पहले ही 32 पूर्णिमाओं का व्रत प्रारम्भ कर दिया है,इसलिए हे प्रभु इस बालक को प्राण दान दीजिये, पार्वती जी के कहने पर शिव जी ने प्राण दान दे दिया |जब देविदास कि स्त्री ने देखा कि पुष्पवाटिका मे स्थित सभी पत्र -पुष्प फिर से हरे हो गए हैं तो वह समझ गयी कि मेरे पति जीवित हो गए हैं,वह अपार हर्ष के साथ अपने पिता के पास आयी और बोली हे पिता जी मेरे पति जीवित हो गए हैं आप उनको ढूढ़िए |फिर कुछ दिन बाद देविदास अपने मामा के साथ स्वयं अपने ससुर के यहाँ आया,अपने दामाद को आया देखकर स्वसुर ने गाँव मे बहुत बड़ा प्रीतिभोज कार्यक्रम रखा और बहुत सारे ब्राह्मणो को दान दक्षिणा देकर प्रसन्न किया |
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि हे माते ये मेरा वचन है इसमे कोई संदेह मत करना,कलियुग मे जो कोई स्त्री इस व्रत को विधिपूर्वक करेगी उसको जन्म जन्मांतरों तक वैधव्य का दुख नहीं भोगना पड़ेगा,तथा यह व्रत परम सौभाज्ञ देने वाला होगा |